परोपकार (Paropkar Hindi Essay)
अठारहों पुराणों में ब्यास के दो ही सार वचन है – परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप। गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रकार कहा है कि –
परहित सरिस धरम नहि भाई। पर पीड़ा सम नहि अधमाई।।
परोपकार सर्वमंगल की भूमिका है। परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याण के लिए ‘स्व’ की बलि दे देना ही परोपकार का सुंदर लक्ष्य है, पवित्र साधन है।
परोपकार हेतु यह आवश्यक है कि व्यक्ति पहले अपने में सामर्थ्य उत्पन्न कर ले। यह समर्थ है त्याग और बलिदान की। दीपक स्वयं नहीं जलता तब तक वह दूसरे को आलोक (प्रकाश) नहीं दे सकता।
रात के सन्नाटे में सोती और स्वप्न निहारती यशोधरा को छोड़कर चले जाने वाले सिद्धार्थ स्वार्थी नहीं कहा जा सकते, क्योंकि लोक-कल्याण हेतु उन्हें पहले सिद्धि की योग्यता उत्पन्न करनी थी।
परोपकारी व्यक्ति का दिल दरिया होता है। तन-मन हरण दूसरों की चिंता में रमा रहता है। उसका हृदय स्वच्छ मंदिर बन जाता है। संपत्ति की महत्ता इसी में है कि वह सबका हित करें। जयशंकर प्रसाद की “कामायनी” में श्रद्धा मनु को उपदेश देती है –
औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ। अपने सुख को विस्मृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।।
हमारी संस्कृति का मूल भाव था परोपकार। दूसरे को हंसते देखकर अपना दुख भूल जाने का सहज भाव हमारी संस्कृति में निहित था। परोपकार की भावना स्वर्ग की सीढ़ी है।
स्वार्थ पशुता का आधार है, यह अवनीति के गहरे गड्ढे में धकेल देता है, पर परोपकार सार्वभौम कल्याण के प्रशस्त प्रगति-पथ पर आगे बढ़ता है। परोपकार मानवमात्र का उच्चतम गुण और आभूषण है।
Final Thoughts –
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